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Electronic Article Surveillance (EAS) Systems Market Insights by Growing Trends and Demands Analysis to 2028 | #electronic Article Surveillance (EAS) Systems Market

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दिल्ली मेट्रो की वह लक्ष्मण रेखा, जो रावण ही नही बल्कि श्रीराम को भी पार करने की अनुमति नहीं है।
मेरे बच्चे उस तरफ सीटें खाली हैं, पर नियमानुसार मुझे इधर ही रहना है😃😃🙏

वैसे अच्छा है, रावण जैसों को रोकने के लिए कई बार श्रीराम को भी नियमों में बंध कर रहना पड़ जाए तो क्या बुरा है।

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असली धार्मिक समरसता दिल्ली मेट्रो में, सिख भाई मोबाइल में गेम खेलते हुए, मुस्लिम भाई स्कूल के सिलेब्स की चर्चा करते हुए और हिंदू भाई फोटो खींचते हुए😊🙏😃।

ऐसे चलता रहे तो बढ़िया है, नाम बदलने की, पहचान छिपाने की जरूरत क्या है!!!!

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ये भी दिल्ली मेट्रो लग रही,इसी कारण महिलाओं का डिब्बा अलग लगाना पड़ा!😉

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राजपूतों के युद्ध नियम :-
राजपूतों के इतिहास की बात आते ही आंखों के सामने आ जाते हैं उनके नियम, उसूल। कई बार इन्हीं उसूलों के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ा, परन्तु फिर भी उन्होंने अपने इन उसूलों को महान आदर्शों का दर्जा देकर इनका अस्तित्व बनाए रखा। हालांकि ऐसा नहीं है कि इन नियमों का कभी उल्लंघन न हुआ हो।
अपवाद सर्वत्र हैं, परन्तु फिर भी राजपूतों ने जहां तक सम्भव हो सका इन नियमों की पालना की। बाद में 16वीं-17वीं सदी से इन उसूलों में कमी देखी गई।
राजपूत युद्ध में विषैले व आंकड़ेदार तीरों का प्रयोग नहीं करते थे। रथी से रथी, हाथी से हाथी, घुड़सवार से घुड़सवार व पैदल से पैदल लड़ते थे। हालांकि यदि कोई घुड़सवार आगे होकर हाथी से लड़ना चाहे, तो वह लड़ सकता था।सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होते थे।
तराइन के दूसरे युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सेना की पराजय का मुख्य कारण यही था।जब सम्राट की बहुत सी सेना को नींद से जागे हुए कुछ ही समय हुआ था कि तभी मोहम्मद गौरी ने सूर्योदय से पहले ही अचानक आक्रमण कर दिया। वह शुरुआती आक्रमण था, इसलिए राजपूत बाहरी आक्रांताओं की इन चालों से अनभिज्ञ थे।राजपूत कभी भी भयभीत, पराजित व भागने वाले शत्रु पर वार नहीं करते थे।
यह नियम खुले में लड़ने वाले युद्धों के लिए था, छापामार युद्धों में इन नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता था।शत्रु का शस्त्र टूट जाए, धनुष की प्रत्यंचा टूट जाए, कवच निकल पड़े या उसका वाहन नष्ट हो जाए, तो उस पर वार नहीं किया जाता था। इसी तरह सोते हुए, थके हुए, प्यासे, भोजन या जलपान करते हुए शत्रु पर वार नहीं किया जाता था।युद्धों के समय राजपूत शासक प्रजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते थे।
लेकिन जब शत्रु भारी संख्या में किले की घेराबंदी के लिए आते थे, तब राजपूतों के पास प्रजा को बचाने का एक ही तरीका होता था कि उन्हें दुर्ग में शरण दी जाए।यदि शरण ना दी जाए, तो प्रजा निश्चित रूप से मारी जाती और शरण दी जाए, तो तभी मारी जाती जब बाहरी आक्रांता गढ़ जीत लेता।
लेकिन फिर भी हज़ारों की संख्या में लोगों को गढ़ में शरण देना, उन्हें रसद उपलब्ध करवाना मामूली बात नहीं होती थी।प्रजा को शरण देने से घेराबंदी कम समय तक चलती थी, क्योंकि किले में रसद सामग्री शीघ्र समाप्त हो जाती थी।
फिर भी राजपूत इस बात की परवाह नहीं करते थे और जब रसद समाप्त हो जाती, तो खुद ही किले के द्वार खोलकर लड़ाई लड़ते थे।युद्ध में जो शत्रु घायलावस्था में कैद किए जाते, उनका इलाज करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था।
जैसे महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ख्मी बेटे व मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को कैद करके मरहम पट्टी करवाकर छोड़ दिया था।शरणागत रक्षा को निभाने के लिए राजपूत अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते थे।
रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी से बग़ावत करके भागे हुए 2 बागियों को शरण दी थी, जिनके बदले में उन्होंने रणथंभौर के सभी राजपूतों समेत प्राणों का बलिदान दिया व राजपूतानियों को जौहर करना पड़ा।
जब भी दो राजपूत शासकों के बीच युद्ध हुए, तब पराजित पक्ष की स्त्रियों को जौहर जैसी परिस्थिति से नहीं गुज़रना पड़ा, क्योंकि राजपूत पराजित पक्ष की स्त्रियों का भी सम्मान करते थे।
उदाहरण के तौर पर सिरोही के राव सुरताण देवड़ा ने कल्ला को पराजित करके उनकी स्त्रियों को सम्मान सहित उन तक भिजवा दिया।महाराणा प्रताप ने तो शत्रु पक्ष के सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को सम्मान सहित रहीम तक भिजवा दिया था।
जबकि अकबर के आक्रमण के कारण चित्तौड़गढ़ में जौहर हुआ था।हल्दीघाटी युद्ध से पहले राजा मानसिंह कछवाहा शिकार पर निकले थे और महाराणा प्रताप के शिविर के काफी नजदीक आ गए थे, जिसकी सूचना महाराणा के गुप्तचर ने उन तक पहुंचाई।
उस समय राजा मानसिंह के साथ केवल एक हज़ार घुड़सवार थे। लेकिन राजा मानसिंह पर आक्रमण नहीं किया गया।राजपूतों में केसरिया का विशेष महत्व रहा है। यदि किसी युद्ध में राजपूत वीर केसरिया धारण कर लेते, तो उसका अर्थ होता था “विजय या वीरगति”। अर्थात पराजित होकर नहीं लौट सकते थे।
अक्सर केसरिया उन युद्धों में किया जाता था, जिनमें जीतने की संभावना बहुत कम हो, जैसे बड़ी सेना द्वारा किसी किले की घेराबंदी कर दी जाए, तो ऐसी परिस्थिति में राजपूतों का लक्ष्य शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान करने का रहता था।
राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे। कई बार तो ऐसे अवसर भी आए हैं जब किसी एक राजपूत के वचन ने परंपरा का रूप ले लिया हो।
कई बार राजपूत किसी विशेष शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए पगड़ी की जगह फैंटा बांध लिया करते थे और प्रण लेते थे कि जब तक शत्रु को न मार दूं, तब तक पगड़ी धारण नहीं करूंगा।
कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “यदि स्त्री के प्रति पुरुष की भक्ति और उसके सम्मान को कसौटी माना जाए, तो एक राजपूत का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाएगा। वह स्त्री के प्रति किए गए असम्मान को कभी सहन नहीं करसकता और यदि इस प्रकार का संयोग उपस्थित हो जाए, तो वह अपने प्राणों का बलिदान देना अपना कर्तव्य समझता है।
जिन उदाहरणों से इस प्रकार का निर्णय करना पड़ता है, उससे राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास ओतप्रोत है।
”लेनपूल लिखता है कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के स्वभाव, उन्हें साहस और बलिदान के लिए इतना उत्तेजित करते थे कि जिनका बाबर के अर्ध-सभ्य सिपाहियों की समझ में आना भी कठिन था”
फ़ारसी तवारीख बादशाहनामा में लिखा है कि “बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में जहां अच्छे-अच्छे बहादुरों के चेहरे का रंग फ़ीका पड़ जाता था, वहां राजपूत हरावल में रहकर लड़ाई का रंग जमा देते थे।”

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आमेर का किला जयपुर
आमेर की स्थापना मूल रूप से ९६७ ई॰ में राजस्थान के चन्दा वंश के राजा एलान सिंह द्वारा की गयी थी।[16] वर्तमान आमेर दुर्ग जो दिखाई देता है वह आमेर के कछवाहा राजा मानसिंह के शासन में पुराने किले के अवशेषों पर बनाया गया है।[10][17] मानसिंह के बनवाये महल का अच्छा विस्तार उनके वंशज जय सिंह प्रथम द्वारा किया गया। अगले १५० वर्षों में कछवाहा राजपूत राजाओं द्वारा आमेर दुर्ग में बहुत से सुधार एवं प्रसार किये गए और अन्ततः सवाई जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में १७२७ में इन्होंने अपनी राजधानी नवरचित जयपुर नगर में स्थानांतरित कर ली।
कछवाहाओं द्वारा आमेर का अधिग्रहण
पन्ना मीणा का कुण्ड या बावली।
इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार इस क्षेत्र को पहले खोगोंग नाम से जाना जाता था। तब यहाँ मीणा राजा रलुन सिंह जिसे एलान सिंह चन्दा भी कहा जाता था, का राज था। वह बहुत ही नेक एवं अच्छा राजा था। उसने एक असहाय एवं बेघर राजपूत माता और उसके पुत्र को शरण मांगने पर अपना लिया। कालान्तर में मीणा राजा ने उस बच्चे ढोला राय (दूल्हेराय) को बड़ा होने पर मीणा रजवाड़े के प्रतिनिधि स्वरूप दिल्ली भेजा। मीणा राजवंश के लोग सदा ही शस्त्रों से सज्जित रहा करते थे अतः उन पर आक्रमण करना व हराना सरल नहीं था। किन्तु वर्ष में केवल एक बार, दीवाली के दिन वे यहां बने एक कुण्ड में अपने शस्त्रों को उतार कर अलग रख देते थे एवं स्नान एवं पितृ-तर्पण किया करते थे। ये बात अति गुप्त रखी जाती थी, किन्तु ढोलाराय ने एक ढोल बजाने वाले को ये बात बता दी जो आगे अन्य राजपूतों में फ़ैल गयी। तब दीवाली के दिन घात लगाकर राजपूतों ने उन निहत्थे मीणाओं पर आक्रमण कर दिया एवं उस कुण्ड को मीणाओं की रक्तरंजित लाशों से भर दिया। [18] इस तरह खोगोंग पर आधिपत्य प्राप्त किया।[19] राजस्थान के इतिहास में कछवाहा राजपूतों के इस कार्य को अति हेय दृष्टि से देखा जाता है व अत्यधिक कायरतापूर्ण व शर्मनाक माना जाता है।[20] उस समय मीणा राजा पन्ना मीणा का शासन था, अतः इसे पन्ना मीणा की बावली कहा जाने लगा। यह बावड़ी आज भी मिलती है और २०० फ़ीट गहरी है तथा इसमें १८०० सीढियां है।
पहला राजपूत निर्माण राजा कांकिल देव ने १०३६ में आमेर के अपनी राजधानी बन जाने पर करवाया। यह आज के जयगढ़ दुर्ग के स्थान पर था। अधिकांश वर्तमान इमारतें राजा मान सिंह प्रथम (दिसम्बर २१, १५५० – जुलाई ६, १६१४ ई॰) के शासन में १६०० ई॰ के बाद बनवायी गयीं थीं। उनमें से कुछ प्रमुख इमारतें हैं आमेर महल का दीवान-ए-खास और अत्यधिक सुन्दरता से चित्रित किया हुआ गणेश पोल द्वार जिसका निर्माण मिर्ज़ा राजा जय सिंह प्रथम ने करवाया था।
वर्तमान आमेर महल को १६वीं शताब्दी के परार्ध में बनवाया गया जो वहां के शासकों के निवास के लिये पहले से ही बने प्रासाद का विस्तार स्वरूप था। यहां का पुराना प्रासाद, जिसे कादिमी महल कहा जाता है (प्राचीन का फारसी अनुवाद) भारत के प्राचीनतम विद्यमान महलों में से एक है। यह प्राचीन महल आमेर महल के पीछे की घाटी में बना हुआ है।
आमेर को मध्यकाल में ढूंढाड़ नाम से जाना जाता था (अर्थात पश्चिमी सीमा पर एक बलि-पर्वत) और यहां ११वीं शताब्दी से – अर्थात १०३७ से १७२७ ई॰ तक कछवाहा राजपूतों का शासन रहा, जब तक की उनकी राजधानी आमेर से नवनिर्मित जयपुर शहर में स्थानांतरित नहीं हो गयी। ] इसीलिये आमेर का इतिहास इन शासकों से अमिट रूप से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इन्होंने यहां अपना साम्राज्य स्थापित किया था।
मीणाओं के समय के मध्यकाल के बहुत से निर्माण या तो ध्वंस कर दिये गए या उनके स्थान पर आज कोई अन्य निर्माण किया हुआ है। हालांकि १६वीं शताब्दी का आमेर दुर्ग एवं निहित महल परिसर जिसे राजपूत महाराजाओं ने बनवाया था, भली भांति संरक्षित है।
अन्य कथा
राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज शासक नरवर के सोढ़ा सिंह के पुत्र दुलहराय ने लगभग सन् ११३७ ई॰ में तत्कालीन रामगढ़ (ढूंढाड़) में मीणाओं को युद्ध में मात दी तथा बाद में दौसा के बड़गूजरों को पराजित कर कछवाहा वंश का राज्य स्थापित किया। तब उन्होंने रामगढ़ मे अपनी कुलदेवी जमुवाय माता का मन्दिर बनवाया। इनके पुत्र कांकिल देव ने सन् १२०७ में आमेर पर राज कर रहे मीणाओं को परास्त कर अपने राज्य में विलय कर लिया व उसे अपनी राजधानी बनाया। तभी से आमेर कछवाहों की राजधानी बना और नवनिर्मित नगर जयपुर के निर्माण तक बना रहा। इसी वंश के शासक पृथ्वीराज मेवाड़ के महाराणा सांगा के सामन्त थे जो खानवा के युद्ध में सांगा की ओर से लड़े थे। पृथ्वीराज स्वयं गलता के श्री वैष्णव संप्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे । इन्हीं के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बनाया। चंद्रवंशी क्षत्रिय खंगार राजपूत

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