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विश्व में तीन देश पुर्तगाल, आयरलैंड, इंग्लैंड में भारतिय मूल के लोग प्रधानमंत्री है।
अमेरिका , इंग्लैंड के सबसे शिक्षित, आय कमाने वाले भारतीय लोग है।
फोबर्स ने 500 धनिक लोगों को जो सूची जारी की है। उसमें सबसे अधिक भारतीय है। 70 % विश्व की बड़ी कंपनियों के CEO भारतीय है। यही नहीं, अमेरिका के विश्वविद्यालय में भारतीय प्रोफेसर हर विभाग में मिल जायेंगे।
अफ्रीका के गरीब देशों में अब भारतिय उनका विकास कर रहे है। आने वाले वर्षो में आप सुन सकते है कि अफ्रीका की अर्थव्यवस्था भारतीयों के हाथ में है।
इस आश्चर्यजनक सफलता के पीछे क्या कारण है ? इस पर यदि शोध हो तो सबसे बड़ा तथ्य जो सामने आयेगा।
वह भारतीयों का उनका धर्म है। उस धर्म ने उन्हें अनुकूलता का आत्मिक ज्ञान दिया।
स्वामी विवेकानंद 'adaptability is the secrecy of life ' लेख में बहुत पहले भविष्यवाणी कर चुके थे।
हिंदू , अपने धर्म का पालन करते हुये। विश्व का नागरिक बन सकते है। सारा संसार हिंदू कि प्रतीक्षा में है कि वह अपने व्यवहार से शिक्षा दे कि कैसे, अपने धर्म पर दृढ़ विश्वास के साथ दूसरो का सम्मान किया जा सकता है।
दूसरा कारण है, हिंदू प्राचीनकाल से तार्किक रहे है। उन्होंने ज्ञान और शिक्षा को सैदव महत्व दिया है। उनका धर्म स्वयं अनेकानेक ज्ञान का माध्यम है।
वेद मात्र धार्मिक देववाक्य नहीं है। उसमें विज्ञान , कला , आयुर्वेद, भूगोल सभी कुछ है।
ऋग्वेद यह निर्देश देता है कि तुम अपनी संतति को वैदिक ज्ञान दोगे।
यह हमारे अवचेतन में है कि हमें ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
मध्यवर्गीय भारतीय गरीबी में भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देते है।
आर्य शब्द किसी रेस के लिये नहीं था। ऐसे लोग जो ज्ञान में श्रेष्ठ होते है।
गीता में भगवान अर्जुन को कर्तव्यों से हटने पर 'अनार्य' जैसा व्यवहार कहते है। आप इससे ज्ञान का महत्व समझ सकते है।
आज विश्व के आर्थिक तंत्र को knowledge based economy कहते है।
यह वही ज्ञान है! जो कभी उपनिषद, गीता से प्रकट हुआ था। हम कभी भी चमत्कार पर विश्वास करने वाले लोग न थे।
हमने शरीर को स्वस्थ करने के लिये 'योग' दिया। मन को स्वस्थ रखने के लिये 'ध्यान ' दिया।
भारत का भविष्य उज्जवल है। यह तभी हो सकता है, जब अपने जीवन मूल्यों को हम जीवन में उतार सकें।

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एक सोचता है वह हत्या कर देगा , इसे हिंसा कहते है।
दूसरा सोचता है वह हत्या नहीं करेगा, इसे अहिंसा कहते है।
एक तीसरा है, जो स्वयं कि हत्या करता है, इसे आत्महत्या कहते है।
इन तीनों उद्दरणो का मूल सिद्धांत एक ही है।
' मैं मार सकता हूँ ' ।
यह सतही भौतिकता से जुड़ी बात है।
तुम मार ही नहीं सकते ! न किसी को , न स्वयं को।
यह गहरी आध्यात्मिक बात है। गीता का यह प्रमुख सूत्र है।
जो लोग आत्महत्या करते है।
उनको मत है, दुख से छुटकारा मिल गया।
नहीं, आत्महत्या करके एक और कर्म जोड़ लिया है।
कर्मो को जोड़ने से मुक्ति नहीं है।
पुनः आना होगा, पुनर्जन्म लेना होगा। अब जीवन और भी कठिन होगा।
वैदिक धर्म ने सूक्ष्म से लेकर ब्रह्मांड तक को चक्रीय सिद्धांत से परिभाषित किया है।
ब्रह्मांड में ग्रह से लेकर जीव तक एक चक्र में घूम रहे है।
जीव का पथ उसका कर्म है।
सरलता से समझने के लिये सत्य यह है कि हत्या या आत्महत्या से जीवन समाप्त नहीं होता है।
मुझसे कोई पूछता है आत्महत्या करनी चाहिये या नहीं ?
हर कोई कहेगा नहीं।
लेकिन मैं कहता हूँ, इससे छुटकारा मिलने वाला नही है।
हर हाल में जीवन जीना पड़ेगा।
निराश, उदास , दुखी , गम्भीर होकर जीना है। या आनंद, सुख , प्रफुल्लित होकर यह आपका चुनाव है।
रोइये, तड़पिये, पीड़ित रहिये, चिंतित रहिये या आत्महत्या कर लीजिये। लेकिन जीवन जीना ही पड़ेगा।
इस जगत का व्यवस्थापक बहुत कठोर है, दयावान तो लोग मख्खन लगाने के लिये कहते। वह ढिलाई देने पर राजी नहीं होगा। बोझा बढ़ाकर फिर भेज देगा।
बात बस इतनी ही है।
जब जीना ही है तो साहस के साथ, आनंद में , प्रेमपूर्वक जीया जाय।

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स्त्री कि पुरुष पर निर्भरता, स्त्री से अधिक पुरुष के लिये अच्छा नहीं है।
लेकिन आज का पुरूष तो और भी अबला है। वह बड़ी चालाकी से एक सभ्य समाज के निर्माण का तर्क देककर उसे बांधता है।
स्त्री हर दुख सहकर यह स्वीकार कर लेती है कि हर तरह से समझौता उसे करना है। लेकिन वह पुरुष का सम्मान नहीं करती है।
प्राचीन काल आज तक पुरूष ने ऐसे समाज और व्यवस्था को नहीं बनाया जँहा स्त्री सुरक्षित रह सके।
स्त्री के अस्तित्व के लिये पुरुष का होना आवश्यक है। यह स्थापित नियम बन चुका है।
धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता में वह लिखते है।
'स्त्री को किसी ने शाप दे दिया है कि पुरुष के बिना नहीं रह सकती है।'
लेकिन स्त्री का प्रमुख कर्म सृजन है। वह तो कही भी रहकर कर सकती है।
किसी को बांधना, स्वयं बंधना भी है। जिसे स्वंत्रत होना चाहिये था, उसने अपनी दुर्बलता के कारण बंधन बना लिया।
वह पुरूष है, जो उसी जाल में फँस गया जो स्त्री के लिये बनाया था।
बहुतायत ने इसे ही जीवन मानकर स्वीकार कर लिया। लेकिन जिनकी चेतना जागृत हुई
उनकी आत्मा, स्वंतत्रता के तड़फती है। वह धर्म , दर्शन , साहित्य में खोजते है। वह पूर्ति हो नहीं सकती है।
बिना स्वंत्रत हुये न कोई बुद्ध बन सकता है, न कोई भगीरथ कि तरह समाज के लिये तपस्या कर सकता है, न कोई सिकंदर की तरह विजय यात्रा पर जा सकता है।
अब स्त्री पुरुष के सामने खड़ी है।
तुम स्वंत्रत नहीं हो! तुम तो देवता हो। देवताओं का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह उस परंपरा का पालन करें, जो स्वयं बनाये है।
यह स्त्री बिल्कुल ही दोषी नहीं है। वह वही कर रही है, जो उसे दिया गया है।
पुरुष का स्वाभाविक गुण स्वंतत्रता है। यदि उसे यह स्वंतत्रता चाहिये ! वह पहले स्त्री को मुक्त करे।।

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विक्रम मजीठिया ने छोटे साहिबजादों और सिंहों की शहादत की याद में सुनाई पाठ

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विक्रम मजीठिया ने छोटे साहिबजादों और सिंहों की शहादत की याद में सुनाई पाठ

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विक्रम मजीठिया ने छोटे साहिबजादों और सिंहों की शहादत की याद में सुनाई पाठ

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Ravichandran Ashwin ❤️

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पठान की एडवांस बुकिंग कराने वाले लड़के!! 😂

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