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बहादुर शाह ज़फ़र के यौमे वफ़ात पर....
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.... बहादुर शाह ज़फ़र की ये तस्वीर देखता हूँ, तो मुझे एक खूबसूरत शख्सियत नज़र आती है जिसने ग़रीब किसान भूमिहार जनता की मांग पर 1857 की क्रांति का नेता बनने का फ़ैसला किया जबकि कई राजे महाराजे तब तक अंग्रेजों की गोद मे जा बैठे थे
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... मैं देखता हूँ कुछ नफरत में अंधे हो चुके लोग, बहादुर शाह और उनके बेटों की तस्वीर में उनकी "बदसूरती" का मज़ाक़ उड़ाते हैं, ज़ाहिर है नफ़रत ने उनकी आंखों की रौशनी छीन ली है तो वो कहां देख पाएंगे इन कुम्हलाये चेहरों के पीछे वतन के लिए मर मिटने की खूबसूरती को ?
लेकिन ये याद रखने की बात है कि अंग्रेजो का साथ देने के सुरक्षित मार्ग के खुले होने के बावजूद बहादुर शाह ने गरीब और कमजोर जनता का साथ दिया ....
बहादुर शाह ज़फर से जो उनकी जनता ने मांगा वो बहादुर शाह ने दे दिया ... यानी बहादुर शाह को नेता बनाकर उनके नाम पर क्रांति युद्ध चलाया गया और इसका परिणाम ये हुआ कि क्रांति को दबा देने के बाद बहादुर शाह को युद्ध का समर्थन करने के जुर्म मे उनका राज पाट छीन कर उन्हें आजीवन देश निकाला दे दिया गया ....
... अगर बहादुर शाह क्रांति के युद्ध का समर्थन न करते और ग्वालियर के सिंधिया की तरह क्रांतिकारियो पर अंग्रेजो के साथ मिल कर गोलियां चलवाई होती तो शायद आज बहादुर शाह के वंशज भी राजा महाराजा कहलाते और राजनीति मे ऊंची पहुंच वाले होते ... पर जनता का साथ देने का बहादुर शाह को ये सिला मिला कि उनके वंशज आज कोलकाता मे चाय बेचकर पेट पाल रहे हैं....
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बूढ़े बहादुर शाह को तो अंग्रेजों ने नही मारा लेकिन उनके तमाम शहज़ादों को चुन चुनकर अंग्रेजों ने मार डाला था, शहज़ादों को गिरफ्तार करके अंग्रज़ों ने गन्दे कपड़े पहनाये, वो तस्वीरें जिनका आज नफ़रत के बन्दे मज़ाक उड़ाते हैं, वो भी उसी वक्त खींची गई थीं
... ज़ालिम अंग्रेज़ो ने बहादुर शाह ज़फ़र के दो शहज़ादों के सर काटकर बहादुर शाह के आगे नाश्ते के वक्त पेश किए थे .... तब इसी 'कुरूप' बूढ़े ने कहा था कि "हिंदुस्तान के बेटों के सर मुल्क के लिए क़ुर्बान होकर इसी शान से लाये जाते हैं"
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बहादुर शाह ज़फर की इतनी अज़ीम कुरबानी को आज यूं हलके मे लिया जाता देखकर तकलीफ होती है..
ये बहादुर शाह ज़फ़र की आख़री तस्वीर है, ज़फ़र की आख़री तमन्ना थी कि मौत के बाद उनको हिंदुस्तान की मिट्टी में दफ़्न किया जाए... लेकिन अंग्रेजों ने उनकी इस मांग को भी पूरा न किया और ज़फ़र तड़प कर कहते रह गए....
"कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू ए यार में"
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.... आज सोचता हूँ कि अच्छा हुआ कि ज़फ़र का जब 7 नवम्बर 1862 को रंगून में इंतकाल हुआ तो उन्हें वहीं दफ़्न कर दिया गया था... अगर ज़फ़र का कहा मानकर अंग्रेज उन्हें दिल्ली में दफ़्न कर देते तो आज की फ़ज़ा देखकर बहादुर शाह ज़फ़र को बहुत तक़लीफ़ होती, शायद अपने शहज़ादों के शहीद होने की तकलीफ़ से भी ज़्यादा तक़लीफ़ उन्हें आज अपने और अपने ख़ानदान की शहादत का मज़ाक उड़ते देखकर होती...!!!