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इसकी पत्तियाँ फूलने के पहले फागुन-चैत में झड़ जाती हैं। पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है। इसे महुए का कुचियाना कहते हैं। कलियाँ बढ़ती जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं। यही फूल खाने के काम में आता है और 'महुआ' कहलाता है। महुए का फूल बीस-बाइस दिन तक लगातार टपकता है। महुए के फूल में चीनी का प्रायः आधा अंश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं। इसके रस में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियाँ पूरी की भाँति पकाई जा सकती हैं। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों रूपों में होता है। हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकालकर पूरियाँ पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे में मिलाकर रोटियाँ बनाते हैं। जिन्हें 'महुअरी' कहते हैं। सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्ते के दाने आदि मिलाकर कूटते हैं। इस रूप में इसे 'लाटा' कहते हैं। इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर 'महुअरी' बनाई जाती है। हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं। गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है। यह गायों, भैसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती हैं और उनका दूध बढ़ता है। इससे शराब भी खींची जाती है। महुए की शराब को संस्कृत में 'माध्वी' और आजकल के गँवरा 'ठर्रा' कहते हैं। महुए का सूखा फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं।
जंगलों का शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने मेरे परिवार को आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जिससे मैं कॉपी कलम किताब खरीद सका। पिता जी व माता जी के साथ गर्मियों में जंगल से तेंदूपत्ता का संग्रहण व चिरौंजी निकालकर बेचना, बारिश में वृक्षारोपण कर नगद रुपये प्राप्त करना, ठंडियो में शहद तोड़कर बेचना आदि कार्यों से तीनों मौसम में वन से धन की प्राप्ति होती थी जिसका अधिकतम हिस्सा शिक्षा में खर्च किया जाता रहा। शिक्षा में लगाया गया धन खर्च नहीं बल्कि पिता का निवेश होता है जो 18 वर्ष के बाद प्रत्येक महीने खाते में ब्याज सहित वापस आता है। मेरी पहली नौकरी भी जंगल विभाग में फारेस्ट गार्ड के रूप में लगी थी इसलिए मैं जिंदगी भर जंगलों का ऐहसान मंद रहूँगा। शुद्ध हवा, छप्पर के लिए लकड़ी, पिकनिक के लिए रमणीय स्थान आदि का कोई हिसाब नहीं जो मुझे जंगलों ने दिए। जंगलों का कर्ज चुकाने के लिए मौका मिलते ही पौधरोपण के माध्यम से प्रयास करता हूँ। विश्व वानिकी दिवस पर संकल्प लें कि जल जंगल और जंगल की ज़मीन को बचायेंगे-धरा को हरा भरा बनायेंगे।
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भारतीय मूल की नासा अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स की चचेरी बहन फल्गुनी पंड्या ने अंतरिक्ष यात्री के भारतीय जड़ों से जुड़ाव के बारे में बताया।
उन्होंने बताया कि विलियम्स कैसे गणेश की मूर्ति को अपने साथ ISS ले गईं और अपने पूरे प्रवास के दौरान उसे अपने साथ रखा। विलियम्स ने अंतरिक्ष से कुंभ मेले की एक तस्वीर भी भेजी।
पुणे की प्रतीक्षा टोंडवालकर ने साबित किया कि मेहनत और लगन से कोई भी मुकाम हासिल किया जा सकता है। 17 साल की उम्र में शादी और 20 साल में विधवा होने के बाद, प्रतीक्षा ने हार नहीं मानी। उन्होंने एसबीआई में स्वीपर की नौकरी शुरू की और साथ ही पढ़ाई जारी रखी।
प्रतीक्षा ने मैट्रिक और ग्रेजुएशन पास करने के बाद भी अपनी मेहनत जारी रखी। उनकी लगन देखकर उन्हें क्लर्क, फिर ट्रेनी ऑफिसर और आखिरकार एजीएम (एसिस्टेंट जनरल मैनेजर) के पद तक पदोन्नति मिली। एसबीआई ने उनकी कर्तव्यनिष्ठा और संघर्ष को सम्मानित भी किया।
प्रतीक्षा की यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो मुश्किल हालात में हार मान लेता है। उन्होंने साबित किया कि अगर इरादे मजबूत हों, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं है।