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भारत की भूमि पर जितने भी विद्वान हुये है।
उनमें सबसे अधिक आदर मैं हस्तिनापुर के महामंत्री विदुर जी का करता हूँ। वह विद्वान के साथ लेखक भी थे। विदुरनीति उनकी रचना है।
वह किस स्तर के विद्वान थे इससे अच्छी तरह से समझा जा सकता है की भगवान श्रीकृष्ण उनको महात्मा कहकर संबोधित करते थे।
लेकिन मेरा कारण कुछ अलग है।
बहुधा यह देखा जाता है , विद्वान , प्रबुद्ध , अभिजात्य लोग तटस्थ रहते है या निरपेक्षता का ढोंग करते है। अपनी कायरता को सिद्धांतो के आवरण में छुपाते है।
परंतु महात्मा विदुर ऐसे विद्वान नहीं थे। वह प्राचीन भारत के सबसे उच्च पद पर आसीन थे।
भरत वंश कि सारी प्रशासनिक शक्ति उनके पास थी। महामंत्री होने के साथ वह समस्त भारत की नीति , व्यवस्था के प्रेणता थे।
वह कभी मौन नहीं रहे।
निडरता , स्पष्टता , धर्मपरायणता के साथ उनकी नीति में अधिकारों की स्प्ष्ट व्याख्या थी।
अपनी युवावस्था में उन्होंने धृतराष्ट्र को आयु में श्रेष्ठ होते हुये भी उत्तराधिकारी के अयोग्य बताया था।
पांडु पुत्रों को अधिकार दिलाने के लिये वह संघर्ष करते रहे। माताकुंती को आश्रय दिये , लाक्ष्यागगृह में पांडवों की रक्षा किये।
भीष्म , द्रोण , कृपाचार्य जैसे मनीषियों कि भी आलोचना से हिचके नहीं।
हस्तिनापुर कि राज्यसभा में जँहा रेखायें बिल्कुल स्पष्ट थी कि जो भी दुर्योधन का विरोध करेगा, वह हस्तिनापुर का