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उस दौर में क्षत्रियों की तलवार ⚔️ केवल लोहे का टुकड़ा नहीं होती थी, बल्कि उसे 'भवानी' का रूप माना जाता था। जब वह म्यान से बाहर निकलती थी, तो उसका चमकना ही दुश्मन के मनोबल को तोड़ने के लिए काफी होता था। इतिहास गवाह है कि कई बार दुश्मन सेना की संख्या अधिक होने के बावजूद, राजपूती तलवारों के वेग और कौशल के सामने वे टिक नहीं पाते थे।
दुश्मन के भागने का मुख्य कारण केवल शारीरिक बल नहीं, बल्कि वह 'अदम्य साहस' था, जिसे 'केसरिया' करना कहा जाता है। दुश्मन को यह पता होता था कि एक क्षत्रिय योद्धा रणभूमि में तब तक लड़ेगा जब तक उसके शरीर में रक्त की आखिरी बूंद है।
"प्राण जाए पर वचन न जाए" और "युद्ध में पीठ नहीं दिखाना"— ये वो सिद्धांत थे, जो दुश्मन के मन में खौफ पैदा करते थे कि इनका सामना करना साक्षात मृत्यु को गले लगाने जैसा है।
तलवार की धार का डर इसलिए भी था क्योंकि क्षत्रियों को बचपन से ही शस्त्र-विद्या में निपुण बनाया जाता था। चाहे वह घोड़े की पीठ पर बैठकर युद्ध करना हो या पैदल द्वंद्व, उनकी फुर्ती और तलवार चलाने की तकनीक (जैसे कि एक वार में दो टुकड़े करना) दुश्मन सेना में भगदड़ मचा देती थी।
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